गूंज ( एक आंगन की )
गूंज ( एक आंगन की )
उस खाली आंगन में
मैंने एक गूंज सुनी।।
चुप थी कोयल चुप थी दोपहरी,
पर मैंने एक तान सुनी।।
वो जो आंगन अब पराया था,
मेरा होकर भी बेगाना था,
यहीं इसी आंगन में मैंने पहली ठोकर खाई थी,
इसी आंगन में मैंने ख्वाबों ख्यालों की दुनिया सजाई थी,
एक रोज़ यहीं मैं सावन के गीतों पर झूमीं थी,
उसी चारपाई के सिराहने बैठ मैं कई घंटों तक रोई थी,
उस गुलाब को मैंने खिलते और मुरझाते देखा था,
आज अपने बाबुल के आंगन को एक अरसे बाद मैंने देखा था,
बचपन, फिर यौवन हर पड़ाव इस आंगन में बीता,
फिर रस्म कन्यादान की निभा मुझे किसी और आंगन का कर दिया,
अपने बाबुल की चिड़िया मैं कहलाई,
मेरे बाबुल ने मुझे ऊंची उड़ाने भरनी सिखाई,
याद आती है मुझे वो चौबारे पर बैठ जो कड़ाई मैंने की थी,
आज भी याद है वो पहली अधजली रोटी जो तेज़ आंच पर मैंने सेंकी थी,
ये दीवारें अब बेरंग पड़ गई है,
मानो अतीत को पीछा छूटते देख उदास हो गई है,
मैं जिस ओर भी देखूं मुझे बस यादें बिखरी दिखती है,
कुछ यादें मेरे चेहरे पर मुसकुराहट दे देती है,
मैंने भी इन यादों को आंचल में समेट लिया,
आंखों की नमी को आहिस्ता पोंछ लिया,
ये जीवन की रेलगाड़ी मुझे फिर मेरे आंगन ले आई,
इस सूने पन में मुझे सिर्फ बीते कल की गूंज सुनाई दी।।