वह कौन थी
वह कौन थी
रात के अंधेरे में जुगनू दिखा रहे थे रास्ते और पागल से झींगुर गा रहे थे गाने-
सामने था खंडहर, मन में उभरा एक डर, हे प्रभू क्या होगा! अब तू ही जाने-
हवा के प्रवेग से हिल रहे थे पत्ते-ऊल्लुओं और रोते हुए सियार की आवाज से थे हक्के बक्के-
सांय सांय की आवाजों से घबराते हुए चाल को किया तेज श्वांसे फूल रहीं थी,
लगभग दौड़ रहा था-
जल्दी जल्दी डर के मारे खंडहर से मुंह मोड़ रहा था-
अचानक जोर से आई आवाज जैसे टूटा हो कोई सीसा-
मैं बड़बड़ाने लगा जोर जोर से हनुमान चालीसा -
आंख खोल कर देखा तो हो गया हक्काबक्का -
सामने फैले हुए बाल, नुकीले नख, बड़ी बड़ी भीभत्स आंखे और सफेद कपड़े पहने एक साया देखकर रह गया भोचक्का-
वह अट्टहास करती हुई बोली-
मैं चुड़ैल हूं तुम्हारा पीऊंगी खून, अभी-की अभी-
मैं एक पल के लिए डरा फिर हंस पड़ा तुम पिओगी खून मेरा कोई बात नहीं लेकिन पहले सुन लो मेरी दास्ताँ , मैं हूं एक लेखक कवि-
जो अपनी भावनाओं, कल्पनाओं और दर्दों बेचकर भी न ला पाया दो रोटी-
छोड़ कर आया हूं इंतजार करती बीमार पत्नी की दुर्बल काया और दूध के लिए तरसती बेटी छोटी-
जिंदगी में कुछ नहीं कर पाया-
सत्य लिखने के और समाज की सच्चाई उजागर करने के चक्कर में बाजार में भी बिक न पाया--
मैं मजबूरी की लाश को ढोते आया हूं-
क्योंकि बिकते हुए बाजार में अपना जमीर बेच नही पाया हूं-
अभी अभी ताजिन्दगी लिखे सारे पन्नों को
कबाड़ी के यहां बेच कर आया हूं लेकिन दो दिन के खाने की जुगाड़ भी न कर पाया हूं-
मरने जा रहा था चलो कुछ तो काम आऊंगा
जो जिंदा रह कर भी अपनी और घरवालो की न मिटा सका भूंख, शायद तुम्हारी कुछ तो मिटा पाऊंगा-
अब वह स्तब्ध खड़ी चुड़ैल बोली-हम चुड़ैल हैं कोई नेता नहीं हैं जो दो निबाले भी गरीबो के भी छीन लेते है-
हम तो जो उनका ही पीते हैं खून, जो दूसरों का खून पी कर जीते हैं-
रूक गयीं बहती हवायें, मौसम भी सर्द था-
उसकी भयानक आंखों में छलकता मेरी बेवसी का दर्द था-
प्रकृति निस्तब्ध और हैरान सी-
मेरे चैहरे पर मरते मरते जीने की या फिर जीते जी मरने की अजीब सी पहचान थी-
जहां मानव अंतिम श्वांस तक,
मानव का करते हुए शोषण करता है अट्टहास, वहां यह चुड़ैल होकर भी मौन थी-
मैं खड़ा था स्तब्ध, आखिर मानवीयता की लाश ढोते वह कौन थी--