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उम्मीदों की लाश

उम्मीदों की लाश

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सर्द मौसम की प्रभात में,

ऊषा की लालिमा के ह्रास में,

टहलते-टहलते पहुँचा चौक

एक अदद चाय की तलाश में।


चौक तक पहुँचना था कि

धुंधलके, धूल व धुँए रूपी

कोहरे की चादर करके क्रॉस,

टिमटिमाती मोबाइल की टॉर्च में,

दिखी एक नोजवान की

उम्मीदों की लाश।


न तन पर थे वसन,

न जाति-धर्म का मर्म था।

इसकी उम्मीदें मरी कैसे,

या किसी ने उम्मीदों को मारा था


पर इन्हें कोई क्यूँ मारेगा भला

ये तो रोज मरते ही हैं।

करते-करते काम की तलाश

जो रोज घुट-घुटकर

जीता व मरता है।


उसे मारकर कोई क्यों

अपने हाथ गन्दा करता है ?

कल तक जो था

एक आंदोलन का मुखिया

आज उसने क्यों आत्महत्या कर ली।


यह कायरता नहीं बलिदान है

एक अच्छे नेता के नैतृत्व

कौशल के निशान है।


भगत सिंह ने बहरे कानों तक

आवाज पहुँचाने के लिए,

असेम्बली में बम फैंका

इसने ऐसे ही कानों

के लिए जिंदगी को दाँव पर झोंका।


बस फर्क ये है

भगत सिंह की आवाज़ को

प्रेस ने जन-जन तक पहुँचाया

आज की प्रेस ने जन समस्याओं

के हर समाचार को दबाया।


फिर प्रश्न यह है,

भगत सिंह के समय में

देश परतन्त्र था

पर मीडिया हरगिज़ न था।


आज देश भले स्वतंत्र है

पर मीडिया ने भुला दिया

कि यह जनतंत्र है

गर मीडिया ने भूमिका निभाई होती

यह आज जिंदा होता।


इसके भी मजबूत हाथों में काम होता,

गर मिल जाता इन हाथों को काम

ये कुछ भी करने को तैयार थे।


ये बोर्डर पर दुश्मन के छक्के छुड़ा देते

या किसी अदनी सी फैक्ट्री में

काम करके देश की जीडीपी बढ़ा देते।।


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