एक ही धुँआ
एक ही धुँआ
बह रही बसंती बयार थी
ढलते फरवरी की शाम थी
सर्दी ने मुँह मोड़ा ही था
मौसम खुशनुमा होने को ही था
अमराइयों की बौरों की भीनी महक
महुआ की मादकता,
मौसम में आई ही थी
कि, दिल्ली का दिल जल उठा
किसी पर, किसी भी अपील का
किसी भी दुवा का
कोई असर न हुआ
दहशतगर्दी उफ़ानों पर थी
जो भी था,
बस मरने-मारने को तैयार था
उन्होंने एक दुकान फूंकी थी
बदले में इन्होंने दस मकान
पर न जाने क्यों आसमान में
एक ही धुँआ दिख रहा था
दिल्ली का दिल जल रहा था।
जो दुकान के सामने थी
फायर बिग्रेड,
वही सामने मकान के भी थी
आग तो बुझ रही थी
मकान की भी, दुकान की भी
पर दिल अब भी सुलग रहे थे
हिन्दू के भी, मुसलमान के भी
ये आग इन दहशतगर्दों ने नहीं लगाई थी
ये तो टीवी की बड़ी बड़ी स्क्रीनों से आई थी।
लोग पूँछ रहे थे सवाल
मरने वाले हिन्दू थे या मुसलमान
कौन इन्हें बताये?
मरने वाला किसी का भाई था
किसी का बाप,
वह किसी का बेटा भी था
किसी का शौहर भी
किसी का प्रेमी भी
और किसी की मासूक भी
और...औ..र.. मारने वाले कौन थे?
नहीं वे किसी के बाप नहीं थे
किसी के बेटे भी नहीं
किसी के भाई,
भरतार तो वे थे ही नहीं
किसी आशिक तो बिल्कुल भी नहीं
वे सिर्फ जल्लाद, जाहिल और न जाने
क्या क्या थे ?