तेजाब बन गया श्रृंगार
तेजाब बन गया श्रृंगार
प्रतिशोध की,
ये सीमाएं कैसी ....?
स्वार्थ की अग्नि जलाकर,
ये कैसी नियत भस्म करने की ...?
प्रेम की प्रीत का नाम देकर,
ये देह से निभती ... कैसी ये रीत ... ?
चुनरियाँ लाज की पहानकर,
ये जख्म देने की साजिश कैसी ...?
सुंदरता दागी कर दी,
मेरे जिस्म की बरबादी कर दी ....
झुलसा दिया मेरे अस्तित्व को,
दहशत तुने दरिंदगी साबित कर दी ....
दर्द .. चुभन .. घुटन ... की,
ये कैसी ...! सौगात मिली,
मुझे मेरी लक्ष्मण रेखा की ...
मर्यादा के पाठ पढ़ाने वालो ने,
थोप दी जिल्लत मुझपर ....
उम्रभर की .... !
न्याय के पन्ने भी फड़फडाने लगे,
फुहडता ... अश्लीलता .... के ...
काव्य बस अब छपने लगे ....
आदर्श के ऊसूल रह गए मौन बनकर,
मर्यादा के अलंकार भी बदल गए .....
नैतिकता के ये ... खाली पैमाने कैसे ...?
आंचल में मेरे ... सिसकती हुई,
ये उल्हाना की बौछारें कैसे ....
टूट गए ख्वाब मेरे,
शब्द हो गए निशब्द मेरे ....
मेरा आकाश धुंधला हो गया,
सरक गई जमीन कदमों की ...
फिर लड़नी होगी लड़ाई,
मुझे मेरे आत्मविश्वास की ....
