"कयामत"
"कयामत"
एक परिंदा आज कुछ सोच में ऊलझाया था,
खाली पड़ी उन सड़कों को देख जी
उसका मचलाया था,
गायब हो गये रे सब इन्सान,
पंख फड़फड़ाये शोर उसने मचाया था..!
बाहर फैली इन हवाओं में, डर का मानो सन्नाटा था,
ताज़ी लगती इन सांसों में बिमारियों का झांसा था,
चहलपहल के इस जीवन में फैला मानो सन्नाटा था,
घर हुआ या कैदखाना, सवाल में छीपा एक कांटा था,
सब बेटों को इकट्ठा देख, बूढ़ी दादी ने खुद को जांचा था,
विषम परिस्थितियों में ही आज सबका परिवार जागा था,
'खंडर ही तो था अब तक, घर का सही अर्थ
आज सबने जाना था
सफेद कपड़ों में सज्ज गले में स्टेथोस्कोप डाले,
कोई सबकी जान बचा रहा था,
सब बैठे घर के भीतर, सिर्फ मेरा बेटा ही क्यों बहार?
तुम क्या जानो दर्द एक डॉक्टर की मां का,
जी उसका घबराता था,
बिमारियों के बीच जब उसका बेटा झूलस जाता था,
एक विचार मगर हर वक़्त मेरी माँ को आता था,
जिम्मेदारी माँ से बड़ी है ये सोच सिना उसका
गौरव से तन जाता था..!
पर कुछ ना समझों की समझ में
ये सब कहा आता था,
थाली पीटी जीन के लिए उनको उन्ही के
घरों में जाने से रोका जाता था,
'करीब जो तुम आओगे तो संक्रमण ही फैलाओगे,
हमने कहा, हमने ऐसा सोच लिया तो
इलाज कहाँ करवाओगे?
सबक किसी ने हमको बहुत तेज सिखाया है,
उसकी बनाई दुनिया में खलल हमने ही डाला है,
निराकार व सूक्ष्म जीव के आगे भी शक्तियाँ
अस्त हो सकती है,
इंसानियत जो खो दोगे तुम, तो हस्तियां पस्त हो सकती है,
जंग अभी शुरू हुई है, यह दूर तक जायेगी,
जो ना संभले अब तो कयामत जरूर आयेगी,
जो ना संभले अब तो कयामत जरूर आयेगी...!