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Devendraa Kumar mishra

Tragedy

4  

Devendraa Kumar mishra

Tragedy

प्रजातंत्र में

प्रजातंत्र में

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प्रजातंत्र में प्रजा का कंकाल तंत्र दिखता है 

मंहगाई की मार से ईमान भी सस्ता बिकता है 

खाने को मिलती नहीं रोटी, हर बच्चा भूखा पलता है 

लोरी सुनने वाला रो रो कर नींदे पूरी करता है 


हर गरीब नित नए व्रत धारण करता है 

उपवास है आज, कहकर पेट को तसल्ली देता है 

हर गृहस्थी में मरघट सा सन्नाटा छाया है 

मियां मांगे उधार, बीबी की सूख गई काया है 


मंहगाई की मार ने हर चेहरे पर निशान छोड़े हैं 

घोड़े बेचकर सोने वालों के भी बिक गए घोड़े हैं 

मेहमान जो भगवान कहलाते थे 

मंहगाई में बस शैतान नज़र आते हैं 


नल में पानी नहीं, थाली में रोटी नहीं, बच्चे को दूध नहीं 

जालिम मंहगाई वार करते वक़्त उम्र भी देखती नहीं 

बच्चा जो माँ माँ करता था 

अब रोटी रोटी कहता है 


भूखे रहकर भी कहीं देश का भविष्य बनता है 

भुखमरी, महंगाई के कारण प्रीत बदल गयी है, रीत बदल गई है 

मिलकर खाने वालों में छीनने की होड़ सी लग गई है।


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