स्त्री चैतन्य रूप
स्त्री चैतन्य रूप
जगत का चैतन्य रूप है स्त्री
माया है, मोह है, बन्धन है स्त्री
आदि से अनादि काल तक
धरा-अम्बर के क्षितिज होने तक।
प्रभाती रश्मियाँ और सिंदूरी शाम है स्त्री
पुरुष संग घुलती, मिलती, बहती
समन्दर में नदी की धार है स्त्री।
सम्बल पाती पुरुषार्थ से
अदम्य शक्तियों की रौशनी-पुँज है स्त्री
सीमा हो या हो रणक्षेत्र
कंधे से कंधा मिला, हाथों में हाथ ले
अवसर का लाभ उठा,
हिम्मत से, चलने को तैयार है स्त्री
करुणा है, दया है, वात्सल्य है
त्याग की अद्भुत किरदार है स्त्री
पौरुष को जनती, संग पुरुष के
बिना पुरुष भी, जिम्मेदार है स्त्री।
स्नेह से लुटाती सर्वस्व अपना
मान पर बन आए तो, अंगार है स्त्री
हाँ-
कोमलाङ्गी है, कामिनी है
किन्तु स्वाभिमानिनी है, स्त्री
पुष्प- पंखुड़ी सी है छुई-मुई
कभी तलवार और कटार है स्त्री
समस्याओं में उलझी-- घर में
बुद्धि और शौर्य की मिसाल है स्त्री
सच है-
बिना पुरुष-- अस्तित्व नहीं प्रेम का
पर प्रेम की सार्थक आधार है- स्त्री
इश्क को करती परिभाषित- प्रकृति
और जीवन-जगत का सार है- स्त्री।
आधुनिक है,
है अब प्रगतिशील भी
रीति-रिवाजों को संभालती-
समाजिक सरोकार की संस्कार है स्त्री।।