पौधे और मैं
पौधे और मैं
उग आए थे कुछ नीम और पीपल
कुछ कनेर और गुड़हुल सींचे थे हमने
हरी - भरी बगिया, हंसती - खेलती
सांसों में संगीत भरती, गाया करती थी
नाचा करती थीं तितलियां और
नीचे उसके लोटा करती, बयार, शीतल।।
बरसों पुराने एक घाव, हरे हो गए
कटी थी जब, मेंहदी की टहनियां
मेंहदी ने अपनी कुर्बानी दी थी
जीने को ऊपर तक पहुंचाने को
आज दुबारा, बह निकले, खून
और, लहू लुहान हो गई, अंगुलियां।।
मेंहदी और कनेर के पत्तों संग
पुलकित होते थे, मन - प्राण
नीम और पीपल, चलते कदमों को
देते थे, जीवन का नित नया भान
गेंदे और गुलदाउदी के रंग से
मिलता रहा, इंद्रधनुषी शाश्वत मान।।
वात्सल्य / ममत्व, चुप हो गया
सांसे हो गईं, निश्चल - निष्प्राण
जलती जेठ की दुपहरी में
सैयाद ने, छीन लिए छांव
तितलियां, अब कहीं नहीं दिख रहीं
श्रृंगार विहीन हुआ, सारा वितान।।