कड़वा सच
कड़वा सच
जीवन का सबसे कड़वा सच
आदमी को स्वीकार नही सच
सुनकर झूठी तारीफ के लफ्ज
आदमी चढ़ जाता जल्द,दरख़्त
व्यक्ति बनना चाहे ऐसा,दीपक
जो फैलाना चाहे यहां पर तम
सबका ही आज उसको है,मत
मधुर झूठ बोले है,जो फटाफट
अपने ही बन जाते है,दुश्मन
जो गर बोलते है,कड़वा सच
उन्हें मिलती है,बहुत मुसीबत
जो लेते और देते नही है,रिश्वत
जीवन का कैसा है,यह सबब
सत्य हो गया है,आज बेबस
जो सच बोलते है,साखी लब
उन्हें आज नही मिलता है,रब
सच लगे,शूल,झूठ लगता,सुमन
जो होते है,झूठे के जिंदा जगत
पर साखी तू बोलना सदैव सच
सच बोलने पर मिलती है,राहत
झूठ चाहे कितना हो बलशाली
अंत में जीतता है,सच मनोरथ
उनके लिये होगा,सत्य अचरज
जो झूठ में डूबे हुए है,अंदर तक
शीशे का कितना ऊंचा हो,मस्तक
एक पत्थर आगे है,वो नतमस्तक
जैसे कड़वा दवा करती है,असर
वैसे कड़वा सच विष लेता है,हर
कितने ही बड़े क्यों न हो झूठे-गज?
वक्त आने पर मिटा देती चींटी रज
जो झूठ को कहते है,सदा गलत
हर परिस्थिति में बोलते,सदा सच
ऐसे इंसान वाकई मे होते है,नभ
उसके आगे झुकते झूठ के कद
जो शख्स रहता है,सत्य नित रत
उसको मिलती है,सर्वत्र इज्जत
यह ज़माना उसके आगे होता,नत
जो कड़वे सच को माने,मधुर लत
दिल से विजय
विजय कुमार पाराशर-"साखी"