सोचती हूँ इस क़दर चाहूँ
सोचती हूँ इस क़दर चाहूँ
सोचती हूँ इस क़दर चाहूँ,
तुझे की तेरी खुशियों की,
सुनहरी रोशनी बन जाऊँ।
तेरी राहों का काटा नहीं,
तुझे मंज़िल तक पहुचने वाली,
सारथी बन जाऊँ।
और क्या फर्क पड़ता है,
मेरा प्यार क़बूल हो या ना हो तुझे,
खुदा करे की तेरे मुकमल,
प्यार की हँसी तस्वीर बन जाऊँ।
सोचती हूँ इस क़दर चाहूँ तुझे,
की तेरे लिए दुनिया की,
सारी दुआ बन जाऊँ।
तेरी जगती आँखों का सवेरा न सही,
तेरे शाम का जलता,
दिया बन जाऊँ।
और क्या फर्क पड़ता है मैं,
तेरे करीब हूँ या ना हूँ,
तुझे सारी मुकम्मल,
नज़दीकियाँ मिले और,
मैं उस रात की तन्हाई बन जाऊँ।
सोचती हूँ इस क़दर चाहूँ तुझे,
की तेरी जिंदगी के पन्नों पे,
लिखने वाली कलम की,
स्याही बन जाऊँ।
तेरी तकलीफों को बढ़ाने वाली नहीं,
उन्हें सुलझाने वाली बन जाऊँ।
और क्या फर्क पड़ता है,
मैं तेरी हमराही बनूँ या ना बनूँ,
खुदा करे तेरी ज़िन्दगी की,
राधा बन जाऊँ।