सिस्टम की बेशर्मी
सिस्टम की बेशर्मी
आज कवि भी कविता लिखते लिखते फफक पड़ा है
क्या वह लिख सकेगा मजदूरों के पलायन पर कोई कविता?
टीवी में खबरें देख कर वह समझ नही पा रहा है की किसकी बेशर्मी देखे?
सिस्टम की या हुक्मरानों की?
किसको कहे बेशर्म वह?
उन मजदूरों को जो हर बार हड़काने के बाद भी भूखे प्यासे पैदल चले जा रहे है?
या उस सिस्टम को जो भूखे प्यास से बेहाल मजदूरों पर लाठियाँ भांज रहा है?
कैसे कहे उन मजदूरों को की यही है सबका साथ सबका विकास?
सिस्टम सही काम कर रहा है जो मजदूरों की घर वापसी को पलायन कह पल्ला झाड़ रहा है.....
उनके विश्वास को तोड़ कर......
मजदूरों के काफ़िले पैदल जा रहे है और सिस्टम परदेस से फ्लाइट्स में लोगों को ला रहा है
उन नौनिहालों से बेशर्मी से आँख मिलाते सूटकेस को रेल बनाती माँ की तारीफ करता है....
कवि भी क्या करे?
वह भी पलायन करता है....
आँखों मे आँसू भरकर चार लाईने लिखके वह अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है....
आजकल लॉकडाउन में घर के पाठक भी फेसबुक की हर पोस्ट को पढ़ लेते है
और मजदूर नित नए जुगाड़ से भूखा प्यासा ही चलते जाता है....