शिकारी और पंछी
शिकारी और पंछी
एक पंछी रंग-बिरंगी, आजाद सी
जो दुनिया की परवाह नहीं करती थी,
जो पंख खोले तो उड़ने से नहीं डरती थी।
जो खुले आसमानों को जीतना जानती थी,
जो खुद को मौसमी रंग से सींचना चाहती थी।
जो बेपरवाही और लापरवाही में उड़ती रहती थी,
जो जरूरत में सभी से जुड़ती रहती थी।
एक दिन उसने अपने सपने में
एक पंछी का जोड़ा देखा,
अब उसने रुकने का भी
ख्वाब थोड़ा थोड़ा देखा।
आँख खुली तो फिर
शिकारी को अपना मान बैठी,
अब समझ लो कि वो पंछी
पिंजरे में लिए अपनी जान बैठी।
शिकारी ने जब देखा तो
आजाद किया खुले आसमानों में,
पर वापस आ गई वो और
रहने लगी पिंजरे के अरमानों में।
अब पिंजरा खुला होने के बाद भी
वो खुद से उड़ती नहीं है,
पहले जैसे ही आजादी की तलाश है
पर आजाद छोड़ दो तो उड़ती नहीं है
यूं ही चला रहा है सिलसिला...
हर रोज शिकारी उसे आजाद करता है,
पर वो पिंजरे में कैद हो जाती है,
खुला आसमान है नजरों के सामने
पंख भी हैं पर उड़ना नहीं चाहती है।
शिकारी अब भी दूर बैठे सब कुछ देख रहा है,
आखिर कब उड़ेगी शायद यही सोच रहा है।
पर पंछी तो इसी इंतजार में है कि
शायद एक दिन फिर से शिकारी वापस आएगा,
पिंजरा छोड़ देगा और उसे अपने साथ लेकर जाएगा।
