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Gaurav Kumar

Tragedy

4.5  

Gaurav Kumar

Tragedy

शीत तुमपे कैसे लिखूं मैं..

शीत तुमपे कैसे लिखूं मैं..

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360


कंपकपाते शरीर की सिहरन से 

अलाव की लकड़ियां क्षुब्ध हो गई 

घकुरियों से लिपटी वो कम्बल सी 

मेरी शीतल की अकड़न 

ओस से जल गई ..


पतझड़ से झरती 

उस साख से पूछना तुम..

की कैसे तपती सर्द की वो तीव्र हवाओं से

बाहों में लिपटी जाड़े की मौत हो गई..

कलिखबारी चादर तक ओढ़ा ना पाया उसे..

कश्मीरी कमीज तक ना पहना पाया उसे..

बाँहों में सिमटी.. दिन थी वो मेरी,

रात रेशमी के कपड़े बहुत पसंद थे उसे 

मलमल के रुमाल तक ना दे पाया उसे..


बेमौसम मारा गया एक सख्स 

उसकी शरीर शिथिल सी जम गई 

सूर्य की किरणे परे तो 

वो जी उठे पल दो भर के लिए 

गिनता था जिसकी उँगलियों से तारे कभी 

वो चाँद और भी प्रखर होती हुई 

वेदना इन आँखों में बरसा गई 


छतर छाया में जिसे उष्म ना दे सका 

कोयल की पलकों में ग्रीष्म ना दे सका 

मुखाग्नि में जलती वो 

उसकी मसाल को जिस्म ना दे सका..

जम गई सांसों की,

भभकती ज्वाला को कैसे लिखू मैं 

शीत बताओ कोई.. तुमपे कैसे लिखूं मैं 

गीत बताओ कोई .. तुमपे कैसे लिखूं मैं..



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