क्या उम्मीदों का कर माफ़ होगा ?
क्या उम्मीदों का कर माफ़ होगा ?
मोहलत देता हूँ,आधी रात की तुम्हें
न्याय क्या है ? अन्याय क्या है ?
जुर्म की कोठरी में,
ना जाने कितने कत्ल होंगे.. संगीन
कल की चादर ओढ़े किसान,
कितने ही खाव बुनते होंगे.. रंगीन
सूरज..
कल भी दिन निकलेगा
कोई किरणों से आस लगाए बैठा होगा
तो कोई तापमान से झुलस रहा होगा
बारिश..
कल भी बादल छायेगी
कोई खेत पानी के लिए तड़प रहा होगा
तो कोई आँखों से बूँद बरस रहा होगा
आग..
कल भी पेट जलेगी
फसल खेतों में जल रहा होगा
कोई भूख से आंसू छिपा रहा होगा
मोहलत देता हूँ आधी रात की
दलदल में फसे किसानो को निकालो
लहू लुहान मिटटी कबतक सिचेंगे हम
मौसम की मार कबतक सहेंगे हम
कर किस्तों में कबतक भरेंगे हम
बहते फसलों की भूचाल से कबतक मरेंगे हम
तपती मिट्टी की अकाल से कबतक डरेंगे हम
है सोचा कभी
दो गज जमीन लुटाने आया था मैं
किसी की आग बुझाने आया था मैं
समझना तुम मेरे खेतों की चिल्लाहट
महसूस करना तुम मेरे किसानो की आहट
खेतो की नमी कमाने जा रहा हूँ बाहर
किसानो को न्याय दिलाने जा रहा हूँ बाहर।
