शहर को अपना आशियाँ समझा
शहर को अपना आशियाँ समझा
ख़्याल जब उन का आया मेरे यों ज़ेहन में ही,
शहर छोड़ कर के जाना भी मुनासिब न समझा,
साथ ले कर के घर जाना भी तो मुनासिब न था,
गाँव छोड़ शहर को ही अपना आशियाँ समझा।
गाँव के घर को बेचना ही मैंने तब ठीक समझा,
शहर के मकान की कद्र भगवान से ज़्यादा थी,
सूख गए गाँव के शजर राह मेरी तकते तकते,
अन्त होने से पहले मेरी उम्मीद भी ज़्यादा थी।
उम्मीदें ज़िन्दा रख कर दिल में हम विदा हो गए,
कफन का इन्तज़ाम न कर पाए कोख के जाए,
और जिनके लिये शजर की छाँव ही छोड़ी मैंने,
वो नहीं बन पाए, न ही बनेंगे उम्र भर के हम साए।
संगति के आगे यों झूठे संस्कार ही जैसे पड़ गए,
मगर अपने ही बच्चों को संस्कार की दुहाई न दो,
तुम्हारे भी जाए तुम्हारी आखिर क्यों ही मानेंगे,
खुद को भी अपनी करनी का ही फल भुगतने दो।
ख़्याल जब उन का आया मेरे यों ज़ेहन में ही,
शहर छोड़ कर के जाना भी मुनासिब न समझा,
साथ ले कर के घर जाना भी तो मुनासिब न था,
गाँव छोड़ शहर को ही अपना आशियाँ समझा।