शायद
शायद
बैठे बैठे तन्हा ये सोचे यह मन बावरा
इस जीवन से क्या चाहे यह मन बावरा
सच्चे मन से उत्तर दिया यह मन
सिर्फ खामोशी ही खामोशी हो
मीलों दूर तक तन्हाई का बसेरा हो
गहरी चुप्पी और सन्नाटा हो
अपनी ही धड़कन की आवाज सुनना है क्या शायद??
बैठे बैठे-------
नदी किनारे बैठ कर यादों की दुनिया में खोना चाहती हूँ
पुराने किस्सों को याद कर हँसना और रोना चाहती हूँ
शर्त है बासी पड़े मन पर फिर से कोई दस्तक न दे।
क्या फिर से नये रिश्तों में बन्धना चाहती हूँ शायद???
बैठे बैठे-----
दर्द दूसरों का सुन-सुन कर थक चूंकि हूँ
अपने दर्द सरे-आम करना चाहती हूँ
कुछ देर सही रिश्तों के जाल से मुक्त होना चाहती हूँ
अकेले में खुद से मिलना चाहती हूँ शायद????
इस जीवन से ऊब चूंकि हूँ सुस्ताना चाहती हूँ
ठहरकर आईने में खुद को जी भरकर देखना चाहती हूँ
क्या मैं ख़ुद को बदलना चाहती हूँ शायद??
बैठे बैठे --------
कहीं बैठकर अकेले में कॉफी पीना चाहती हूँ
कॉफी के धुएं के संग सारे गमों को उड़ाना चाहती हूँ
अखरता नहीं है अब रिश्तों का आना जाना
नम आँखों से बिंदास रहना चाहती हूँ
अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ शायद????
क्या सही है क्या गलत है ये कौन हमें बतलाएं
खुद समझकर किसी को भी अब नहीं समझाना चाहती हूँ
बहुत देर हो गई पता है हमको मगर
अब खुद को खुश करना जानती हूँ
क्या मैं फिर से बेपरवाह जीवन जीना चाहती हूँ
शायद नहीं सिर्फ हाँ।