शाांतायन
शाांतायन
गंगा बड़ी गोदावरी तीर्थ बड़े प्रयाग
सबसे बड़ी नगर अयोध्या जहाँ राम लीन अवतार
शांता को भी याद करते हैं फिर एक बार
सीता की व्यथा, राम का वचन
रामायण है,
दशानन का अहंकार, हनुमान की भक्ति रामायण है ।
इन किरदारों की कथाओं में एक
एक शांता की भी रामायण है,
उसकी कथा से किन्तु हम आज भी अनजान हैं ।
पावन अयोध्या में जन्मी दशरथ नादिनी,
रिष्यश्रृंग संगिनी मैं,
कौशल्या सखी ।
राम अग्राजा, कैकेई - सुमित्रा प्रिया
वो राजकुमारी जिसने सीता सा राज पाठ त्याग दिया ,
नाम शांता मेरा , काम विख्यात थे
अज के सिद्धांत सभी मुझे याद थे।
(अज राम के पूर्वज थे)
युद्ध- कला ,शास्त्र ,वेद का मुझे सम्पूर्ण ज्ञान मिला,
किन्तु पूर्ण सम्मान मुझे त्याग के ही बाद मिला ।
वचनों का हमेशा ही रघुकुल में स्थान
अतुलनीय था ,
राम - सीता - लक्ष्मण से पूर्व मैंने भी बलिदान दिया था ।
अयोध्या ने दान वचन को सबसे श्रेष्ठ ठहराया था ,
हर सदस्य ने इसका मूल चुकाया था ।
राजा दशरथ दानवीर महान थे,
पर शायद कठोर नीति से अनजान थे ।
महारानी कौशल्या अवश्य धर्मों में श्रेष्ठ थी ,
रघुकुल की वधू वो भी विवश थी ।
मित्रता में एक सखा ने अपनी पुत्री को सौंपा था ।
पर कभी विचार करती हूं क्या उस क्षण सिर्फ क्या महाराज के ही धर्म का महत्वपूर्ण था ।
महाराज रोमपद रानी वृषेनी ने मुझे प्रेम पूर्ण अपनाया था ।
रिश्तों के लिए आवश्यक सिर्फ भावना मुझे सिखलाया था
महाराज रोंपद से असीमित मुझे स्नेह दिया ।
इसी स्नेह ने मुझे परन्तु विरह भी दिया।
देवराज के श्राप ने फिर बलिदान मांगा था ,
विधाता ने फिर मेरे जीवन को कर्तव्य की डोर में बंधा था ।
लाना था रिष्यश्रृंग को अंग
यह परिस्थिति की मांग थी,
नगर के कल्याण हेतु ज़रूरत थी बलिदान की ।
जिससे थी एक पल पहले अनजान
करना था विवाह आज
फिर एक रिश्ता केवल कर्तव्य हेतु जुड़ना था आज ।
वर्षों बाद अयोध्या से चिट्ठी आती थी,
उपस्थिति ऋषि पत्नी की पुत्रकामेष्ठि हेतु बुलाई थी ।
हृदय पूछता क्यों पुत्री शांता की छवि भुलाई थी ?
पीहर से मिलने की इच्छा क्षण क्षण जगाती ,
पर बनूं सिर्फ अतिथि कर्तव्य की यहीं मांग थी ।
ना मिल पाई अनुजो से अग्रजा ये नीति का न्याय था ,
एक नीति की ही आगे तो स्वयं विष्णु लक्ष्मी का प्रेम भी आशय असहाए था ।
समय बाद फिर इतिहास ने खुद को दोहराया था ,
एक बार फिर दशरथ के वचन को निभाने मां कौशल्या में मूल्य चुकाया था ।
वचन दे पहली बार दशरथ इतना पछताए थे ।
क्या मुझे भी राजा रोंपाद को सौंप उन्होंने ने इतने अश्रु बहाय थे ?
रामायण की कथा का में ना वाखयन करूंगी,
जिसका संसार को ज्ञान है
मैं उस पीढ़ा की बात करूंगी
जिससे जन अनजान है ।
चौदह वर्षों बाद दीपावली आई थी,
विष्णु संग गृह लक्ष्मी वनवास काट आई थी ।
लौटी ही थी खुशी सदियों बाद चौखट पर,
वापस लौट गई वो भी कर्तव्य के बंधन देख कर ।
राजा का धरम है सबसे ऊपर ये समाज का निर्देश था,
सीता का दूसरा वनवास राम का आदेश था ।
राज धर्म का पहला, साथ फेरो के धरम का दूसरा स्थान हैं
क्षमा प्राप्ति हूं में यहीं विधि का विधान है ।
बलिदान देने की सीता की दूसरी बड़ी थी,
पर बिन स्वाभिमान ना जनक दुलारी थी ।
सीता के अश्रु पोंछने की मेरी ना हिम्मत थी,
किस भांति कहती उससे वचनों के आगे उसके प्रेम की यहीं कीमत थी ।
दिया वचन हर तुम्हारे कीमत मुझसे ले जाएगा ,
इतिहास में नाम लेकिन सदैव तुम्हारे दोहराया जाएगा।
सीता शांता उर्मिला कौशल्या आयेंगी और भी,
कर्तव्य वश त्याग देंगी वो भी अपनी ज़िन्दगी ।।
गंगा बड़ी गोदावरी तीर्थ बड़े प्रयाग
सबसे बड़ी नगर अयोध्या जहां राम लीन अवतार
शांता को भी याद करते हैं फिर एक बार
सीता की व्यथा, राम का वचन
रामायण है,
दशानन का अहंकार, हनुमान की भक्ति रामायण है ।
इन किरदारों की कथाओं में एक
एक शांता की भी रामायण है,
उसकी कथा से किन्तु हम आज भी अनजान हैं ।
पावन अयोध्या में जन्मी दशरथ नादिनी,
रिष्यश्रृंग संगिनी मैं,
कौशल्या सखी में।
राम अग्राजा, कैकेई - सुमित्रा प्रिया
वो राजकुमारी जिसने सीता सा राज पाठ त्याग दिया ,
नाम शांता मेरा , काम विख्यात थे
अज के सिद्धांत सभी मुझे याद थे ।
युद्ध- कला ,शास्त्र ,वेद का मुझे सम्पूर्ण ज्ञान मिला,
किन्तु पूर्ण सम्मान मुझे त्याग के ही बाद मिला ।
वचनों का हमेशा ही रघुकुल में स्थान
अतुलनीय थ ,
राम - सीता - लक्ष्मण से पूर्व मैंने भी बलिदान दिया था ।
अयोध्या ने दान वचन को सबसे श्रेष्ठ ठहराया था,
हर सदस्य ने इसका मूल चुकाया था ।
राजा दशरथ दानवीर महान थे,
पर शायद कठोर नीति से अनजान थे ।
महारानी कौशल्या अवश्य धर्मों में श्रेष्ठ थी ,
रघुकुल की वधू वो भी विवश थी ।
मित्रता में एक सखा ने अपनी पुत्री को सौंपा था ।
पर कभी विचार करती हूं क्या उस क्षण सिर्फ क्या महाराज के ही धर्म का महत्वपूर्ण था ।
महाराज रोमपद रानी वृषेनी ने मुझे प्रेम पूर्ण अपनाया था ।
रिश्तों के लिए आवश्यक सिर्फ भावना मुझे सिखलाया था
महाराज रोंपद से असीमित मुझे स्नेह दिया ।
इसी स्नेह ने मुझे परन्तु विरह भी दिया।
देवराज के श्राप ने फिर बलिदान मांगा था ,
विधाता ने फिर मेरे जीवन को कर्तव्य की डोर में बंधा था ।
लाना था रिष्यश्रृंग को अंग
यह परिस्थिति की मांग थी ,
नगर के कल्याण हेतु ज़रूरत थी बलिदान की ।
जिससे थी एक पल पहले अनजान
करना था विवाह आज
फिर एक रिश्ता केवल कर्तव्य हेतु जुड़ना था आज ।
वर्षों बाद अयोध्या से चिट्ठी आती थी,
उपस्थिति ऋषि पत्नी की पुत्रकामेष्ठि हेतु बुलाई थी ।
हृदय पूछता क्यों पुत्री शांता की छवि भुलाई थी ?
पीहर से मिलने की इच्छा क्षण क्षण जगाती ,
पर बनूं सिर्फ अतिथि कर्तव्य की यहीं मांग थी ।
ना मिल पाई अनुजो से अग्रजा ये नीति का न्याय था ,
एक नीति की ही आगे तो स्वयं विष्णु लक्ष्मी का प्रेम भी आशय असहाए था ।
समय बाद फिर इतिहास ने खुद को दोहराया था ,
एक बार फिर दशरथ के वचन को निभाने मां कौशल्या में मूल्य चुकाया था ।
वचन दे पहली बार दशरथ इतना पछताए थे ।
क्या मुझे भी राजा रोंपाद को सौंप उन्होंने ने इतने अश्रु बहाय थे ?
रामायण की कथा का में ना वाखयन करूंगी,
जिसका संसार को ज्ञान है
मैं उस पीढ़ा की बात करूंगी
जिससे जन अनजान है ।
चौदह वर्षों बाद दीपावली आई थी,
विष्णु संग गृह लक्ष्मी वनवास काट आई थी ।
लौटी ही थी खुशी सदियों बाद चौखट पर,
वापस लौट गई वो भी कर्तव्य के बंधन देख कर।
राजा का धर्म है सबसे ऊपर ये समाज का निर्देश था,
सीता का दूसरा वनवास राम का आदेश था।
राज धर्म का पहला , साथ फेरो के धरम का दूसरा स्थान हैं
क्षमा प्राप्ति हूं में यहीं विधि का विधान है।
बलिदान देने की सीता की दूसरी बारी थी,
पर बिन स्वाभिमान ना जनक दुलारी थी।
सीता के अश्रु पोंछने की मेरी ना हिम्मत थी,
किस भांति कहती उससे वचनों के आगे उसके प्रेम की यहीं कीमत थी।
दिया वचन हर तुम्हारे कीमत मुझसे ले जाएगा ,
इतिहास में नाम लेकिन सदैव तुम्हारे दोहराया जाएगा ।
सीता शांता उर्मिला कौशल्या आयेंगी और भी,
कर्तव्य वश त्याग देंगी वो भी अपनी ज़िन्दगी ।।
