राह और राहगीर
राह और राहगीर
मैं उस राह का हूँ राहगीर
जिसे गुजरना है कई मुकाम पे
कहीं जिंदगी की उलझन से
तो कहीं अपने जीने की चाह से
मैं उस राह का हूँ मुसाफिर
जिस राह से न कोई आज तक
पा सका मंजिल अपनी!
पैरो के छाले भी पिघलने लगे
कभी सर्द तो कभी गर्म सी राह है
पर महसूस न होती मुझे
बर्बादी अपनी!
न जाने कितने दिवस बीत गए
पर मंजिल न मिल पायी अब तक
कुछ ढूँढ़ने चला था जो राह निकला मैं
खत्म होने का नाम न लेती राह अब तक,
इस छोर से उस छोर तक जाने कितने है
अवसाद अब तक
मैं उस राह का हूँ राहगीर,
जिस राह की न कोई सीमा
कहीं अंधेरा तो कहीं सूरज की तपन
कहीं कभी खुशी की लहर, तो कभी
ग़म की ठोस सिकन
महक उठा था मन मेरा राह पे
तब तक
कोई हुस्न की परी थी साथ
सफर में जबतक
फिर वहीं बियाबान थकान सी राह
जिसका कोई अंत नहीं
एक जन्म से दूसरे जन्म तक
फिर यात्रा करने निकली देह से
मैं उस राह का हूँ राहगीर
जिसे चलना है इशारों से
इशारों तक
मंजिल मिलकर ख़त्म न हो
जाये जब तक।