प्रतिभोज में अनलिमिटेड व्यंजन
प्रतिभोज में अनलिमिटेड व्यंजन
दिन रात मेहनत कर कमाता वो पिता है
पाई पाई जोड़ कर जेवर है बनवाता,
सोचता पलकों पर बैठाया था लाडो को,
आज खुशी से करूंगा उसका कन्यादान,
नहीं होगी आवभगत में कोई कमी,
अपनी सारी पूंजी लगा दूंगा,
नाम सुन प्रतिभोज का मन में उठे अनेक विचार,
क्या क्या रखें मेन्यू में यह सोच रहा पूरा परिवार,
कोई बोला पांच मिठाई तो होनी चाहिए,
उसके बिना क्या प्रतिभोज में है मजा,
फिर चाट पकौड़ी और दो स्पेशल सब्जी हो,
साथ में जूस आइसक्रीम पिज्जा हो तो,
क्या बात क्या बात,
सुन सबकी बात चुपचाप था वो पिता
और कमरे में बैठ लगा रहा हिसाब,
रूपये की तंगी में कैसे होंगे सारे काम,
सोच रहा कोट लूंगा चलो ऐसा करता हूं,
पुराने कोट से काम चला लूंगा,
कुछ रूपए ऐसे जोड़ लूंगा,
वहां देख रही मां बोली क्यों करते हो चिंता,
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा मैं वहीं पुरानी साड़ी पहन,
कर लूंगी बेटी की विदाई,
पर प्रतिभोज बड़ा और व्यंजन अधिक,
क्योंकि यही चली आ रही प्रथा है,
और भरे उसके आंखों में आसूं छलक रहे,
कहीं कुछ कम नहीं पड़ जाए,
इस सोच में बोझ के तले दबा पिता,
रातों रात सोया नहीं,
कर्ज के तले झुकता जा रहा,
और एक से एक व्यंजनो की आड़ में,
न खुद का होश रहा,
और झूठी शान शौकत के खातिर,
दिन भर इंतजाम में लगा रहा,
और बेटी की विदाई से पहले,
चला गया वो छोड़ संसार....
न शादी हुई न बारात आई,
सब कुछ वही रखा रह गया,
संजोया हुआ स्वप्न आंखों में लिए,
वो पिता दुनिया से चला गया.
