मां....
मां....
आंगन सूना सा लगता है उनके बिना,
और हाथ जब सिर को छूएं मानो जन्नत मिल जाती है,
क्या कहूं मैं...
बिना मां की डांट सुनें,
खाना भी बेस्वाद लगता है,
बहू बन जब वो घर में आती है तो,
पैरों की छम-छम करती पायल से घर में रौनक छा जाती है,
और हाथों की खनकाती चूड़ियों से अंगना महक जाता है,
सचमुच मां बिना घर सिर्फ मकान है,
उनके आने से हर कोना मानो चहक जाता है,
घर को सजाने संवारनें के साथ साथ,
वहां की हर दीवारों में मानो जान डाल देती है,
तभी तो वो मकान को घर बना देती है।