नभ में उड़ना चाहती थी
नभ में उड़ना चाहती थी
मैं निज श्रम के आश्रित होकर, भाग्य जगाना चाहती थी।
मात-पिता के जीवन में खुद, संबल बनना चाहती थी।
नवल पंख धर नव स्वप्नों के, नभ में उड़ना चाहती थी।
मधुमय स्वप्नों के महलों में, जीवन जीना चाहती थी।।
धनबल से जालिम जो तूने, वन में महल रचाया था।
उन्नति के शुभ स्वप्न दिखाकर, तूने मुझे फँसाया था।
निश्छल श्रमसेवी को तूने, क्यों व्यभिचारी माना था?
पतित स्वयं ही तन मन से तू, मुझे क्यों ऐसा माना था?
अंतर में वृकों के घिरी थी, तर्जन कर ललकारा था।
अस्मिता रक्षण के हेतु, मैंने भी हुंकारा था ।
धोखे से तूने हे निर्मम! जल में मुझे धकेला था।
बहती जल-धारा के अंदर, मृत्यु से मैंने खेला था।।
हारी हाय! जीवन मैं अपना, स्वप्न सलोने हैं टूटे।
सदा सजाए थे जो मैंने, स्वप्न धरा पर ही छूटे।
सुन ले जालिम यह सच्चाई, जीने तुझको नहीं दूँगी।
जन-जन उर में ज्वाला बनकर, बदला मैं तुझसे लूँगी।।