दोज़ख शहर
दोज़ख शहर
जन्नत से कई घरों को, देखो ढहा दिया,
कि शहर भर को यूँ, दोज़ख बना दिया!
सिर्फ़ अपनी ताक़त का यूँ गुरूर भर था,
जलती शमा से यूँ इक शहर जला दिया!
बारूद की महक और जिस्मों के चिथड़े,
सियासी दज्जालों ने यूँ क़हर बरपा दिया!
ताक़त की नुमाइश का ऐसा क्या तरीका,
माँ, बाप, भाई, बेटों, सब को रुला दिया!
क्या पता दिन आख़िरत का हो नज़दीक,
ये सोच सभी गुनाहों का मैंने तौबा किया!