Himanshu Sharma

Abstract

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Himanshu Sharma

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आओ ज़रा, इंसानों में

आओ ज़रा, इंसानों में

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या तो अख़बार नहीं आता है, सियासतदानों के,

या चीखें रियाया की नहीं पहुँचे उनके कानों में !


यूँही लड़-लड़कर मर-मिट रहें हैं लोग यहाँ पर,

देखो भीड़ रोज़ बढ़ने लगी है अब शमशानों में !


आख़िर जाता पूजा वो ऊपरवाला ही तो है देखो,

फर्क़ बताओ तो ज़रा, नौ रातों में व रमज़ानों में !


छोड़ो साथ फिरक़ापरस्तों का, छोडो नेताओं को,

छोड़ सियासत का दामन, आओ ज़रा, इंसानों में !


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