मुंशी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी आज भी कितनी सटीक
मुंशी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी आज भी कितनी सटीक
वह बूढ़ी काकी, जो कोने में बैठी,
दुनिया विलग, हर खुशी से ऐंठी।
आंखों में धुंधला, पर मन में आस,
कभी कोई आएगा, पूछेगा प्यास ।
बचपन से गुज़री, जवानी भी गई,
अब बस इंतज़ार,कब तक हूँ यहीं
थाली की खुशबू,पर नहीं निवाला,
घर की होकर भी,है दिल दिवाला।
रिश्तों के धागे, जो कभी थे अटूट,
आज उन्हीं रिश्तों से,मन जाता टूट
समाज ने भुलायी उसकी हर चाहत,
बस बची है भूख,उसी से वे आहत।
क्या ये जीवन ही, बुजुर्गों की किस्मत?
जब उम्र ढले,तो मिट जाए अहमियत?
आज की ये दुनिया,क्या सीख न लेगी,
बूढ़ों की पुकार,कनअनसुनी कर देगी ?
उसका हर दुख-दर्द, हर आंसू की बूँद,
कहती है कहानी, मन के मौन से वे गूंद।
कभी थी घर की शान ,आज बोझ बनी,
पर उसकी आत्मा,नेह की खोज में तनी।
