मुकम्मल ख़्वाब
मुकम्मल ख़्वाब
सच ज्ञात है पर जागरण का पथ अज्ञात है।
थोड़ी सी धूप कहीं थोड़ी सी छाँव है ।
लेकिन पेड़ों का अस्तित्व तार-तार है ।
नदियों में उठ रही तरंगें अपार हैं,
लेकिन पानी आरपार है ।
न जीवन न पत्तों का बहाव है ।
हर चीज़ सृजन के प्रयोजन से परे है।
हर आंख बेजान है ।
जीवन तड़पती मछली सा ,
उद्देश्यविहिनता का ही तो परिणाम है ।
उठ जीवन पथ पर बढ़ें।
ऐसा ख़्वाब बुनना
अभी तो सिर्फ़ ख़्वाब है।
मझधार से बाहर निकल,
खुद को संवारने की दरकार है ।
हर पल ख़्वाबों को बुने,
हकीकत का लिबास पहनें ,
और फिर यादों की फ़्रेम सज़ाएं
क्या ये सांचे में ढलते हमारे ख़्वाब हैं।