मरीज-ए-इश्क़
मरीज-ए-इश्क़


आजकल कुछ अजीब सा मर्ज़ हुआ है,
मर्ज़ क्या, जैसे चुकाना कोई कर्ज़ हुआ है।
जाना हुआ मोहब्बत की दार-उल-शिफ़ा में,
बोला हक़ीम तुम्हें तो दिल का दर्द हुआ है।
मर्ज़-ए-इश्क़ की महंगी पड़ी है तदबीर,
वस्ल-ए-यार का इलाज जो अर्ज़ हुआ है।
रूठा है बीमारदार इस मरीज-ए-इश्क़ का,
रूह-ए-जिस्म के पर्चे पर नाम दर्ज हुआ है।
ये साँसे तो चलती है सनम की खुश्बू से,
क्या करें! मिरा महबूब ही खुदगर्ज हुआ है।
परवा-ए-उम्मीद-ओ-बीम न कर 'ज़ोया'
इश्क़-ए-तबाही में अक्सर ही हर्ज हुआ है।