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मर्दाना अहं

मर्दाना अहं

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सदियों से चली आ रही एक कहानी को अंजाम देने की हर कोशिश मेरी नाकाम रही,

मैं जितनी करीब होती गई वो उतना दूर होता गया..

मुझे भूलने की कोशिश में वो खुद को मिटाता चला गया..


सबकुछ तो था वो मेरा 

मेरा वजूद उसकी तरक्की का सामान था पर वो मुझे रोड़ा समझता रहा..

मैं उसके भीतर छुपे एहसास को समझने का ज़रिया थी वो मुझे बेगैरत समझता रहा..


हकीकत में मैं मौजूद थी उसके खून ए जिगर में रूह में बसी रग-रग में,

वो अन्जान किसी और में मुझे ढूँढता रहा..

उसके इन्तेख़ाब ने मुझे दूर कर दिया उसके नज़दीक से, उसने चुने फासले,

पर उसकी सोच में सराबोर झरने सी मैं ही मैं थी..


क्यूँ ढोंग रचा रहा मुझे भूल जानेका..

जो कभी बंद आँखों से मेरी आहट पहचान लेता था

उसी इंसान को खुली आँखों से खुद को पहचानना मुश्किल ह

ो गया..


उसे बाहर की विरानीयों में भटकना, दिमाग की गुत्थियों में उलझना मंज़ूर था, पर दिल में बसी मेरी परछाई संग रहना गंवारा ना हुआ...

मुझे भूलाने की कितनी बड़ी किमत चुकाता रहा वो खुद से ही खुद दूर होता रहा

जो बचा था शेष उसके गुमान में खुद को कुछ समझता रहा...


सरल संज़िदा रास्ते को कंटीला बनाता रहा

इतना कठिन तो नहीं था मुझे पहचानना,

हौले से ज़रा दिल के किवाड़ खोलता 

मेरी पूरी शख्सियत का मालिक एक बस वोही तो था..


सदियों से मंदिर में मूरत सा सजाकर पूजती रही जिसे क्यूँ वो ही मुझको पत्थर समझता रहा..

स्त्री साथी को दिल के पहले पायदान पर विराजमान करने से वो हमेशा कतराता रहा,


काश की कभी मर्दाना अहं से ऊपर उठकर एहसासों को शब्दों की अंजलि दे देता मुखर हो उठते ना दिल में दबे जज़बात।। 


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