अभिलाषा
अभिलाषा
नहीं है अभिलाषा कि झुका दो कदमों पर तुम चांद तारों को,
है बस आशा कि समझो तुम हमारी भावनाओं को...
समझो हमारे पूरे दिन चलने वाले अनवरत कामों को...
कभी तो समझो बच्चों के साथ जागकर कटने वाली पूरी पूरी रातों को...
समझो कभी अलसाई सुबह में भागती घड़ी की सुइयों को..
समझो कभी तुम बीमारी में भी सबकी चिंता में घुलती उस बेचैनी को...
समझो कभी चारदीवारी में घुटते टूटते कुछ सपनों को...
समझो कभी सिसक-सिसक कर दिन से रात,रात से दिन करती करती इक जिंदगानी को...
अगर तुम पुरुष समझो कभी स्त्रियों की इन छोटी-छोटी भावनाओं को
तो फिर जरूरत ही कहां रह जाती है स्त्रियों को किन्ही अभिलाषाओं की।