मेरे इश्क की सजा
मेरे इश्क की सजा
तेरे साथ नजर मिलाने की मेरी जरा भी आदत नही है,
तेरे कजरारे नैनों में मेरी तस्वीर देखने का मेरा शौक है।
तेरे चेहरे को स्पर्श करने की मेरी जरा भी आदत नहीं है,
तेरे मोह में भँवरा बन के गुन गुन करने का मेरा शौक है।
तेरे लिये इंतजार करने की मेरी जरा भी आदत नही है,
तुझ को दिल के झूले में बिठाकर झूलाने का मेरा शौक है।
तेरे अल्फाज़ की उपेक्षा करना मेरी जरा भी आदत नही है,
तेरे अल्फाज़ो से इश्क की गज़ल लिखने का मेरा शौक है।
आसमान के सितारें गिनना मेरी जरा भी आदत नही है।
सितारों के संग महफ़िल जमाकर तुझे नचाना मेरा शौक है।
चांद को खिला हुआ देखने की मेरी जरा भी आदत नहीं है,
"मुरली" चांद में तेरा चेहरा देखना यही मेरे इश्क की सजा है।
रचना :-धनज़ीभाई गढीया"मुरली" (ज़ुनागढ)

