मौसम प्यार का !
मौसम प्यार का !
प्यार करने का कोई मौसम कोई शुभ दिन और अवसर कहाँ होता है ?
जिसका नाम ही पतित पावनी गंगा के सामान निर्मल है ,
उसे मनाने और उस पर गौरवान्वित के लिए किसी विशेष अवसर को क्या ढूंढना ?
अपितु जिस अवसर में ,जिस लम्हे में प्यार बसा हो ,वो स्वयं ही विशेष हो जाता .
जिस तरह फूलों को डालों पर खिलने और महकने से पहले कोई इजाज़त नहीं चाहिए ,
भँवरे को फूल पर मंडराने से पहले कोई इजाज़त नहीं चाहिए ,
प्रेम को भी खिलने महकने और अपनी महक चहुँ ओर
फैलाने से पहले किसी की इजाज़त नहीं चाहिए .
प्यार का इज़हार करने को प्यार का मौजूद होना ज़रूरी है ,
ज़रूरत जिसकी नहीं है वो ज़माने की स्वीकृति और मंज़ूरी है .
बरसात होने से पहले बादलों ने कब किसी की इजाज़त ली है ,
बंजर धरती का आलिंगन करने को अधीर बरखा की बूँद ने
कहाँ किसी की मंज़ूरी की दरकार की है .
चाहे कितने भी कांटे क्यों ना हों , पेड़ पर फूल खिल ही जाते हैं ,
फिर हम क्यों ज़माने से डर डर के एक भयावह और
खौफनाक मंज़र में जीते चले जाते हैं ?
समर्थ है मानव ,प्रबल है मानव फिर क्यों किसी की राय का मोहताज है मानव,
सच्चा है, निर्मल है , पाक है प्रेम, पता नहीं इसको जताने से क्यों पल पल डरता रहता,
किसी दिवस का इंतज़ार करता रहता मानव।