दुनियादारी
दुनियादारी
कवि से कोई कह रहा था
आप चाँद तारों वाली दुनिया की कविताएँ करते हैं..
आप की कविताओं में फूलों की बातें होती हैं...
उन कविताओं में रंगबिरंगी तितलियों की कहानियाँ होती है...
कविवर,कभी हक़ीक़त वाली दुनिया पर कोई कविता क्यों नही लिखते?
लिखें न ऐसी कोई कविता उस सड़क नापते मजदूरों की घिसी चप्पलों पर....
जो चप्पलें घिस जाती है फिर भी उसका साथ देती रहती है....
लिखें न कोई कविता उसके मासूम बच्चों की खिलौनें देखती ललचाई नज़रों पर...
खिलौनों से खेले बिना ही शायद जो बड़ा हो जाएगा...
लिखें न कोई कविता ट्रैफिक सिग्नल पर
लाल गुलाब बेचती उस छोटी सी लड़की पर...
जो फूल खरीदते उन जोड़ों की तरफ़ बड़ी अचरज़ भरी निगाहों से देखती है....
लिखें न कोई कविता भूखे पेट सो जाने वाली उस माँ पर....
जो बच्चों को खाना खिलाकर नींद लेने देती है जिसमे वह बड़े ख्वाब देख सके...
लिखें न कोई कविता मज़दूरों के उन ख्वाबों पर उसी वेदना और संवेदनाओं के साथ....
कवी को यकीन हो गया कि बाज़ार को अब वेदना और संवेदनाओं की ज़रूरत नही रही है.....
बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है की तर्ज़ पर कवी फिर से आसमाँ में लहराती पतंगों और फूलों पर उड़ती तितलियों पर लिखने लगा...