कुछ छूटता जा रहा है
कुछ छूटता जा रहा है


मैं अपने आसपास देखती हूँ...
देखकर लगता है कितना कुछ छूटता जा रहा है....
धीरे धीरे...
बचपन...
कभी खिलखिलाकर हँसते हुए बच्चें दिखाई देते थे...
गुल्ली डंडा खेलते हुए...
कभी बॉल के साथ खेलते हुए...
लेकिन आज न तो गुल्ली डंडा है और न ही बॉल भी है..
आजकल बच्चें मोबाइल में ही मशगुल दिखायी दे रहे है...
तारें...
कभी आसमाँ में रात को टिमटिमाते तारें दिखा करते थे...
आजकल पॉल्युशन में सब कुछ धुँधलासा नज़र आता है...
गौरैया...
आँगन में फुदकने वाली गौरैया अब नज़र नही आती है..
वह भी आजकाल कही खो सी गयी है...
दुनिया से बहुत कुछ छूटता जा रहा है आजकल...
चौपाल...
फुर्सत के पल...
कच्ची सी धूप...
आम तोड़ते बच्चें....
पार्क में खेलते बच्चें...
हाँ, अब कुछ अर्से से नया भी तो घट रहा है..
जैसे सुनहरे भविष्य की आस में विदेश में बसते बच्चें...
जैसे उदासी के साये में रहते माँ बाबा...
जैसे उदासी और तन्हाई के बढ़ते हुए घेरे...
जैसे शहर में बढ़ते हुए ओल्ड एज होम...
और महानगरों में तन्हा फिरते इन्सानों की बढ़ती भीड़...