आँगन की मिट्टी
आँगन की मिट्टी
कुछ सीली नम सी
माँ के हाथों के कोमल स्पर्श सी
बरसों देती रही सोंधी महक
जैसे घर में बसी माँ की खुशबू
माँ और आँगन की मिट्टी
जानती है
जिनकी जगह न ले सके कोई और
लेकिन फिर भी रहती चुपचाप
अपने में गुम
शिव गौरा की मूर्ति से तुलसी विवाह तक
गुमनाम सी उपस्थित
एक आदत सी जीवन की
माँ और आँगन की मिट्टी
कभी खिलौनों में ढलती
कभी माथा सहलाती
छत पर फैली बेल पोसती
कभी नींद में सपने सजाती
कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
माँ और आँगन की मिट्टी
उड़ गए आँगन के पखेरू
बन गए नए नीड़
अब न रही जरूरी
बेकार, बंजर, बेमोल
फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
माँ और आँगन की मिट्टी।
