मेरी कविता
मेरी कविता
डायरी वाला किराये का मकान छोड़कर
पत्रिका रूपी घर तलाशती मेरी कविता
पहुंच तो जाती हैं, संपादक की टेबल पर
बिना पढ़े, बिना कोई दृष्टि डाले
स्तर हीन बताकर टेबल से रद्दी की टोकरी
का सफर तय करती मेरी कविता।
आज चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है
छपती हैं, उसकी रचना जो संपादक का भाई या साला हैं
यह कलयुग हैं, यहाँ न कोई धर्मयुद्ध न कर्म युद्ध
नीति विहीन दुर्योधन नहीं, धर्मात्मा युधिष्ठिर नहीं
फिर क्यों प्रकाशक के भाई-भतीजों से हार जाती है, मेरी कविता।
हो सकता है, मेरी कविता में बच्चन जैसा रस नहीं
"निराला" जैसा मर्म नहीं, "महादेवी" जैसी शब्दों पर पकड़ नहीं,
"प्रसाद" जैसा सौन्दर्य नहीं, "पंत" जैसी परिपक्वता नहीं
पर मुझे लगता है
नये साहित्यकारों की परिपाटी पर
खरी उतरती है, मेरी कविता।
भावों को क्या कभी कोई समझ पाएगा ?
कोई हैं जिसने पाषाण हृदय नहीं पाया हैं
क्या मेरे शब्द किसी से स्नेह के बंधन को बांध सकेंगे?
या हमेशा तिरस्कृत होती रहेंगी मेरी कविता?
कब तक यूँ वापिस लौटायी जाएंगी
मोटे चश्मे में अनुभवी बने संपादकों को कब तक
कम उम्र की नज़र आएंगी
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
बूढ़ी हो रही है, मेरी कविता।