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Savita Gupta

Drama

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Savita Gupta

Drama

पृथ्वी हूँ

पृथ्वी हूँ

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सदियों से घुम रही हूँ 

इर्द गिर्द चंदा और सूरज के

कहीं अंधकार में रहती

कभी अँजोर फैलाती

नि:स्वार्थ धरणी हूँ।


काया पर मेरे सागर सा आँचल 

वन उपवन हिमालय और  भू तल

कोख में सबको समेटे हुए

निरंतर चक्र सी मैं पृथ्वी अविरल।


विषाक्त हवा से

बेदम हुई जा रही थी

दोहन से ,सूखी पत्तियों सी

झुलस गयी थी।


तन पर पपड़ियाँ 

अंग पर फफोले 

सूई सी चुभन काँटों के

मैं पृथ्वी कराह रही थी।


रावण सा रूप असंख्य धरे

नोंच लिए पंख मेरे

उड़ गए हर रंग मेरे

चीत्कार रही आ जाओ राम मेरे


तुम धीर न धरे ,बहुत तेज चले

बहुत सहा पर मजबूर हुई

बग़ावत पर उतर आई

मैं पृथ्वी टूट गई...|


जीव निर्जीव प्राणों से प्यारा

हर्षित हर प्राणी दुलारा

गोद मेरी हरी भरी रहे 

पावन अवनि पर सभी सुखी रहे।

पृथ्वी की बस यही कामना।


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