चिखती ख़ामोशी
चिखती ख़ामोशी
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नया खून
नवांकुर के सीने में
कुलबुलाती चाहतें
रगों में बहता जोश और रवानी
कुछ कर गुज़रने की
कुछ बदलने की
आँधी उठी थी उसमें…
बेख़ौफ़,निडर
ज़माने से लड़ने की
बीड़ा उठाए,
चल पड़ी थी
भीड़ में अकेली
आवाज़ बनकर
पर एक दिन
सुनसान राहों पर
झाड़ियों में उलझी
चिथड़े में लिपटी
ख़ामोश थी वो…
और समाज के ठेकेदारों
का शोर बाज़ार में
सुर्ख़ियाँ बन दहाड़ रहे थे।