औरत, देवी नहीं
औरत, देवी नहीं
कभी मन से, तो कभी तन से उतारी जाती है,
औरत जाने क्यूँ ‘देवी’ के नाम से पुकारी जाती है।
पूरी बाँहें फैला कर, जब आसमाँ बुलाता है उसे,
क्यूँ फिर लक्ष्मण रेखा, उसकी दहलीज़ पर बना दी जाती है।
इज़्ज़त अगर बच जाती है, दुपट्टे में लिपटे जिस्म की,
क्यूँ फिर ६ गज की साड़ी पहने तन से भी आबरू उतारी जाती है।
सहमी, सँवरी, सुन्दर और सुशील, चुपचाप रहे तो अच्छी,
क्यूँ हक और सम्मान के लिये उठी उसकी आवाज़ दबा दी जाती है।
कमज़ोर नहीं वो, मोम सी सोच और फ़ौलादी इरादों से भरी है,
कुछ भी कर गुजरने की क्षमता है उसमें,
क्यूँ फिर मर्यादा के नाम पर प्रतिभाओं की बलि चढ़ा दी जाती है।
वो चुप रहती है और सह जाती है हर पीड़ा, ये उसका दोष नहीं,
सद्गुण और शिष्टाचार की पट्टी, उसे बचपन में ही पढ़ा दी जाती है।
मत प्रतीक्षा करो, उसकी ओजस तेज़ से, ज्वलंत ज्वाला होने की,
वो निर्भीक हो जाती है जब उसकी अग्नि परीक्षा करा दी जाती है।
कभी मन से, तो कभी तन से उतारी जाती है,
औरत जाने क्यूँ ‘देवी’ के नाम से पुकारी जाती है।
औरत को औरत रहने दो, मान दो, सम्मान करो
औरत सृष्टि का मूल है, सृष्टि उचित दृष्टिकोण से ही संवारी जाती है।