मै परी अपने पापा की
मै परी अपने पापा की
सुबह की नई किरण सी थी वो
जब उस ने जन्म लिया
पलकों पर सजा कर
गलबहियाँ डाल बैठ गोदी में
रूठने मनानें मे पीछे पीछे दौड़ते
बड़े अरमान से उसके ख्वाबों को सजाया
आगँन मे चहकती चिरैया सी
खेलते कुदते, खुशियों से गुनगुनाते,
देखते देखते हुई सियानी।
कोमल कली को फूल बनता देख
उपवन मे भवँरे के मुख पर आयी मुस्कान
मन मे अंकुरित हुए प्रेम के बीज
ले विश्वास मे असीम प्रेम बरसाया
था जादू उसकी आँखों में
दिखायें सपनें अनगिनत
सपनों को सजाती।
लांघ गयी दहलीज़
संग उस के छोड़ दिया घर बार
ना पहचान सकी उस के जुमलों को
उस के इस अप्रत्याशित प्रक्रिया से
चकित हो गये पालनहार,
सपनों मे नेह तलाशते जब
चाहा आशियाना उसने।
बहुत मेहनत की पर
रास्तों ने हर मोड़ पर छला उसे।
आत्मग्लानि के दावानल मे जलते
चाही उसने घर वापसी
पालन हार ने दी दुहायी
वो हमारे लिए मर चुकी है
ना हो सकी पहचान उसकी
सिसकती रही।
सौ सौ बार अपनी गलती पर मरती रही
करती रही इन्तजार बाबूल का ...
कच्ची कली थी ना समझ सकी
नेह मे पड़ अच्छा बुरा अपना
वो तुम्हारेआगँन मे पली थी
चाहती है फिर से कंधे पर सर रखना
कैसे कर सकते हो ऐसा
जो गरूर थी तुम्हारी
आज कर दो माफ उसे
है समय की मारी बेबस इन्सान।
जो ना जान सकी अपनी धड़कनों में
बहते तुम्हारे लहू को
जो वंचित रह गयी
विदाई के समय माथे पर तुम्हारे प्यार,
गिरते हुए मां के आसुओं को।