श्राद्ध
श्राद्ध
पिता का साथ
वटवृक्ष की छांव था
धोती कुर्ता ढीला सा
छांकता था उसमें से
उन का सुडौल शरीर
हमेशा प्यार था दुलार था
उन की छत्रछाया में
रहता था परिवार निश्चित
मेहनत करते थे जितना
बन पड़ता था करते थे
परिवार का भरण पोषण
ग़रीबी में भी वक्त पर मिलता
भर पेट भोजन
पर एक दिन मच गया
कोहराम चले गये
पिता रह गया परिवार असहाय
छीन लीअसमय ही
समय ने छांव बरगद की
मैं सबसे सयाना था
मेरे सब अनुज पांच बहन ,भाई
ना समझ पाया सब क्या करुँ
आ गया भार कन्धों पर
झूठी सांत्वना दें चले गये
सभी नाते रिश्तेदार
इन तेहर दिनों ने असमय
बना दिया परिवार को लाचार
अब बारी थी बहृमभोज की
सोप दी एक बड़ी सूची
पकवानों की
इस तंगहाली में
जैसे मजाक बना रही थी
सूची हमारी,
क्या क्या बिक सकता था
मां सोच रही थी
इस सोच पर मौन ही
अन्दर कुछ सुलग रहा था।
पिता तुल्य विद्वान पंडित जी
की आंखों से ना छुपा सका सच
सिर पर हाथ रख पंडित जी ने
सांत्वना दी ये जो इस परिवार के
पालन का जिम्मा उठा रहे हो
उन के अधुरे कार्य पूरे कर रहे हो
यही उन को सच्ची श्रद्धांजलि है
उन की आत्मा तुम को आशीर्वाद देती होगी
पकवानों से नहीं पवित्रता से बनाया हुआ
दाल भात ,रोटी और गुड़ से भी
वो जहां है तृप्त होंगे
घर में जो बना वहीं थाली में लगा
उन को समर्पित करो
वहीं सही मायने में श्राद्ध है।