तुम
तुम


सोचा आज कुछ अधूरी कवितायें
पूरी कर लूँ,
डायरी के पन्ने टटोले,
कुछ कोरे जैसे
मन किसी गहराई में डूब के
ऊपरी सतह पर वापस आया ही नहीं...
कुछ आधे भरे,
जैसे कुछ कह कर मन हल्का कर लिया
और कुछ अब भी
मन के किसी कोने में दबा पड़ा है..
कुछ पन्ने छोटे छोटे अक्षरों में पूरे भरे,
जैसे दिल को खंगाल के रख दिया...
और कुछ पन्ने सिर्फ़ एक ही शब्द से भरे थे
“तुम”....
ज़रा सा शब्द तुम..
पर न जाने कितने हसीं सवाल,
हसरतें, ख़ाब, अहसास..
एक ही शब्द में शुरू होकर ख़त्म भी हो जाते है..
तुम.. शायद अपने आप में ही
एक ऐसी कविता है
जिसे किसी और शब्द की ज़रूरत ही नहीं..
सिर्फ़ ‘तुम’ पढ़ कर ही मन
हज़ारों रंगों में रंग गया
होंठ मुस्कुरायें, थोड़ा काँपे
लम्बी गहरी साँस ली और
आँखों से गुनगुनी शबनम पन्नों पर उतर गई..
हर पन्ने की कविता एक कहानी है,
शब्द बुनने वाला
सपनों का जुलाहा
चुने शब्दों में न जाने क्या क्या बुन जाता है
पढ़ने वाला पढ़ कर
वाह की छाप छोड़ जाता है ..
पर मैं तो लिखती हूँ
कि जैसे मैं किनारे पढ़ी तड़पती मछली को
वापस लहरों में छोड़ रही हूँ,
जैसे धूप में जलते पंछी को
पेड़ की छाँव दे रही हूँ..
मेरे मन की हर तड़प, हर अगन
भरे पन्नों पर आराम नहीं पाती
पर जब वो एक शब्द लिखती हूँ
“तुम”.. जीवन की हर कविता पूरी हो जाती है....