प्रेम
प्रेम

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तुम कैसे पतझड़ के जैसे
ख़ुद मुझे दूर कर देते हो
और मेरी सोच फिर वसंत सी
तुम्हारे प्रेम के
नव अंकुर उगा लेती है।।