मैं बेचारी
मैं बेचारी
अब छोड़ चलूँ
ये प्यार, ये मोहब्बत,
रंगीन ख्वाबों की ये हसरत !
कुछ नहीं, सब बकवास है !
ना हँसाती है और ना ये रूलाती है,
बस, पेंडुलम की तरह मुझे झूलाती है।
बहुत खेल लिया ये नाटक,
हाँ, मैं भी अब समझने लगी हूँ,
इस मतलबी दुनिया में
सबको अपनी लगी है,
दूसरे को जानने की, समझने की,
फुर्सत, कहाँ,किसको पड़ी है !
पर, ये नादान दिल !
उफफफ ! फिसलता है,गिरता है
फिर भी दौड़ पड़ता है,
सुनता है जब, वही
पुरानी मीठी सी लुभाने वाली आवाज़
"सुनो मैं तुमको बहुत प्यार करता हूँ।"
ओह! फिर वही आवाज
ऐसा कहकर, मैं, झट, लौट आती हूँ।
लेकिन, वो मासूम दिल वहीं रह जाता है !
लौटकर, वापस, ठसक से पूछता है,
'अरे तुम क्यों लौट आयी ?
वही था ना पहले वाला !'
मैं, हतप्रभ उसे एकटक देखती रह जाती हूँ,
हठात्, एक सवाल, कटघरे में लाकर
मुझे खड़ा कर देता है,
'बताओ, बंधन तोड़कर भी तुम,
खुद को क्यों बंधी हुई अब भी पाती हो ?'
अप्रत्याशित सवाल के कटघरे में
अनुत्तरित, असहाय
उलझी हुई मैं, बेचारी बन रह जाती हूँ !