मैं खुश हूँ
मैं खुश हूँ
कल भी सुबह होगी
आज भी सुबह है
कल भी सुबह रही होगी
कोई दरवाज़े पर
दस्तक देकर ठहर जाता है
कैसे विडम्बना है
इस अन्तराल का
कि
कल से कुछ ले भी नहीं पाते
ना हिम्मत ही करते हैं
कल को कुछ देने की
बस आज एक खुश्बू है
समन्दर पर ताजमहल बनाऊंगा
ज़िन्दगी का सार मिल जाता है जैसे
मैं खुश हूँ इसी में
बहुत खुश
फिर क्या मिलेगा?
'कुछ करने' के अर्थों में
क्या फायदा?
'बुद्धजीवी' के बेमज़े की
हलचलों से
यही क्या कम है कि
'रोटी' का फिक्रमंद हूँ
और देख लेता हूँ महलों के सपने।