खिड़कियांँ
खिड़कियांँ
बहुत कुछ पीछे छूट गया है ज़िंदगी में,
यही तो एहसास कराती हैं बस और ट्रेन की खिड़कियांँ।
बात करें अगर घर की खिड़कियों की तो,
खैर अब तो ना जाने कितने घरों में,
होती ही नहीं खिड़कियांँ।
जिनके घरों में होती हैं।
उनके घरों में भी अब खुलकर कहांँ,
बाहें फैला पाती हैं यह शहर की खिड़कियांँ??....
बंद पड़ी रहती हैं अब तो घर की खिड़कियांँ।
सिमटी-सी रहती है खुद में ही आजकल यह खिड़कियांँ।
क्योंकि एयरकंडीशनर की हवा,
कमरे से बाहर ना चली जाए कहीं।
इस जिम्मेदारी का बोझ जो उठाती हैं यह खिड़कियांँ।
पहले सूरज और चंदा देखने के,
काम आती थीं यह खिड़कियांँ।
अब तो चिड़ियों का भी,
इंतज़ार ही करती रह जाती है खिड़कियांँ।
पहले पूरी रात ठंडी हवा का,
आनंद देती थी ये खिड़कियांँ।
आजकल एयरकंडीशनर की हवा खाने वाले,
लोगों को क्या पता कि,
कैसी ठंडी हवा देती हैं यह खिड़कियां ?
पहले घर में बैठे-बैठे ही,
पूरा बगीचा दिखा देती थी खिड़कियांँ।
आजकल फ्लैटनुमा घरों में,
कैद से रहने वाले लोगों को क्या पता कि,
क्या होती हैं पेड़-पौधों और बगीचे की झलकियांँ ?
अब तो महंगे पर्दों के अंदर खुद ही,
कैद रहती है यह खिड़कियांँ।
पहले बरसात के मौसम में कमरे में बैठे-बैठे ही,
बारिश की बूंदों की ठंडक का,
एहसास करा देती थीं यह खिड़कियांँ।
अब तो महंगा कालीन और
घर की दीवारों पर लगा एशियन पेंट।
खराब ना हो जाए कहीं इसीलिए,
बंद ही पड़ी रहती हैं चुपचाप-सी बेचारी यह खिड़कियांँ।
पहले पड़ोसियों तक के साथ,
नाता जोड़े रखती थी खिड़कियांँ।
अब तो घर में रहने वालों से भी,
अंजान ही रह जाती है यह खिड़कियांँ।
पहले एक बार इनमें से झांँक लेने से,
मन को सुकून दे देती थीं यह खिड़कियांँ।
अब तो इंसानों ने,
ना जाने क्या पाने की लालच में खो दिया।
अपना सुख, चैन और सुकून सब कुछ।
अब तो चाहकर भी लोगों के मन का,
सुकून नहीं लौटा सकती यह खिड़कियांँ।
पहले मन के दरवाजे खोलने के भी,
काम आती थीं यह खिड़कियांँ।
अब तो स्वयं ही बंद रहती हैं,
बेचारी यह खिड़कियांँ।
ना जाने कैसे,
इतना सब कुछ सहती हैं अब यह खिड़कियांँ ?
महसूस होता होगा इन्हें भी अगर कुछ तो,
रोती तो ज़रूर होंगी यह खिड़कियांँ।
रोती तो ज़रूर होंगी यह खिड़कियांँ।
