यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं
जो तुम ना मांँगो एक नादान लड़की से।
50 साल की उम्र जितनी समझदारी।
बल्कि मांँग लो उसके माता-पिता से उसका,
थोड़ा-सा बचपन और
थोड़ा-सा बेबाकपन और चुलबुलापन।
और उसकी खुशियांँ सारी तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
सिर्फ़ उसकी खूबियांँ सारी।
बल्कि मांँग लो उसकी खामियांँ।
अल्हड़-सी हंँसी और
नादानियांँ भी सारी तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
बस गोरे रंग में समाई हुई,
खूबसूरती की परिभाषा सारी।
बल्कि मांँग लो उससे उसकी,
चांँदी-सी मुस्कान प्यारी तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
टीवी, फ्रिज, एसी और
वॉशिंग मशीन जैसी सुख-सुविधाएंँ सारी।
ब
ल्कि मांँग लो उससे कहावतें उसके शहर की।
कहानियांँ उसके बचपन की और
नए घर को अपना बना लेने के लिए।
उसके बचपन के खिलौनों से भरी अलमारी और
बचपन की सब यादें सारी तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
दहेज़ में उसके माता-पिता से कार।
बल्कि मांँग लो उससे बस,
उम्र भर का साथ और प्यार तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
उसके ख्वाबों की कुर्बानी।
बल्कि मांँग लो उसके पंख।
सपनों के आसमान में उड़ने को ताकि
खत्म ना हो जाए उसके अरमानों की कहानी तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
जो तुम ना मांँगो एक लड़की से,
उसके माता-पिता की वसीयत का हिस्सा।
बल्कि मांँग लो उससे,
उसकी आत्मा की वसीयत का पूरा हिस्सा तो,
यूँ दहेज़ मांँगना बुरा भी नहीं।
Akshita Aggarwal
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