ओझल परछाई
ओझल परछाई
एक दिन अचानक मैंने,
डूबते सूरज को गौर से देखा।
उसी के साथ,
आँखों के आगे से,
ओझल-सी होती परछाइयों को देखा।
फिर ना जाने क्यों अचानक,
मैंने अपनी परछाई को देखा।
पता नहीं वह परछाई ही थी या
था कोई सवाल??
पर,
पहले कभी ना,
कोई परछाई मेरे सामने आई थी और
ना ही कोई सवाल।
शायद,
वह प्रतिबिंब था मेरा।
जो बचपन में ही,
अश्कों के सागर में कहीं,
ओझल-सा हो गया था।
कहीं तो वह अवश्य ही,
खो-सा गया था।
जब से,
जीवन के हर मोड़ पर मैंने खुद को खोजा।
खुद के ही प्रतिबिंब को खोजा।
वही प्रतिबिंब अचानक,
एक सवाल के रूप में,
आज मेरे सामने था??
सवाल
खुद को ना खोज पाने का??
अश्कों के सागर में,
खुद को डूबा देने का??
अपने अंदर खुद को,
ना ढूँढ पाने का??
अपने वजूद को ना खोज पाने का??
फिर अचानक,
डूबते सूरज और उगते अंधेरे में,
खुद को ढूंँढने की चाहत जगी।
दुनिया के उसूलों से कुछ अलग,
मैं तो अंधेरे में जगी।
मैं जगी और फिर मेरी उम्मीद जगी और
उस प्रतिबिंब के रूप में उभरे,
सवालों के जवाब ढूंँढने लगी।