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Dr. Akshita Aggarwal

Fantasy Children

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Dr. Akshita Aggarwal

Fantasy Children

गांँव का मेला

गांँव का मेला

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अब तो वो वक्त हो गया अनजान है।

जब लगता था गांँव का मेला ही तो,

गांँव की शान है।

गांँव की शान है।


आज के जमाने में कहांँ

मिट्टी और लकड़ियों के खिलौनों की आन है।

अब तो खेल के लिए भी

मोबाइल आता काम है।

मोबाइल आता काम है।


शहरों में कहांँ लगता है गांँव जैसा मेला।

अब तो पिज़्ज़ा और बर्गर की आड़ में खो गया।

गांँव के मेले में मिलने वाला चाट का ठेला।

चाट का ठेला।


अब कहांँ अहमियत एक रुपए के सिक्के की।

पुराने जमाने में जोड़ा करते थे बच्चे।

चंद सिक्के हर रोज़।

और करते थे इंतज़ार कि,

खर्चेंगें इन्हें खरीदने को कोई खिलौना।

जब लगेगा गांँव में मेला।

गांँव में मेला।


आजकल के बच्चे तो,

इन सब से अनजान है।

चार दिन को गांँव जाते।

बनकर के मेहमान हैं।

जैसे मांँ-बाप पर करते कोई एहसान हैं।

करते कोई एहसान हैं।


आज के जमाने में तो,

पैसों से ही तोली जाती इंसान की शान है।

अब तो वो वक्त हो गया अनजान है।

जब लगता था गांँव का मेला ही तो,

गांँव की शान है।

गांँव की शान है।


गांँव का मेला भी,

अब तो लगता बेजान है।

क्योंकि बच्चे ही तो होते

हर मेले की जान हैं।

गांँव का मेला तो अब बच्चों के बचपन से

होता जा रहा अनजान है।

वह तो हर पल ढूंँढ रहा अब

मासूम बच्चों के रूप में अपनी जान है।

अब तो वो वक्त हो गया अनजान है।

जब लगता था गांँव का मेला ही तो,

गांँव की शान है।

गांँव की शान है।


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