किसलय पात मैं भाग-1
किसलय पात मैं भाग-1
चल ना यार
देख ना
कोई नहीं है
अब मान भी जा ना
तुझे अच्छा लगेगा
खुद को कई बार बहुत बार समझाना होता है
कभी रोने पे चुप कराना होता है
कभी मस्ती को लगाम लगाना होता है
ढेर सारा गुस्सा करना कभी
तो कभी फट से मान जाना होता है
रूल्स की ना पूछो
उनको तोड़ना वाजिब है अभी
सहमे हुए कभी सब काट जाना होता है
एक पल में जीना सदियां
इक दिन थोड़ी सुहाना होता है
वाजिब है मुस्कुराना मेरा
खुद को खुश रखना जिम्मेदाराना होता है
पंछियों की तादाद देख
कभी डर जाना होता है
तो देख कभी उनको
मन भर जाना होता है
तुमको देख शाम – सुबह में
दिन भानू बन जाना होता है
किसलय पात भांति बनके मैं
विचरण को जाती जब इधर –उधर
कभी फुदकती कभी ठहरी –सी
कभी उड़ती –सी जाती जिधर
देख – देख मुझको कैसे वो
करतव करने लगते हैं
बस इसीलिए शायद
वो पल मेरा बन जाता है
चुन – चुनकर कैसे तूने
जो चाहा था मिलवाया
किसलय ही कुछ आस है
क्षणभंगुर – सा एहसास है
लगता है मदिरा पान किए मैं
खुदको कहीं तलाश रही
भारी – भारी उर संग लिए
खुदको संतुष्टि बांट रही
पराकाष्ठा क्या कर लेगी
सब कुछ देखन की चाह है
बहुत दिनों से मिले नहीं
मिलने की भी आस है
वो भरती है देख मुझे
कभी देख मुझे हंसने लगती है
कभी टूटी – सी मैं, कभी वो टूटी
टूटी – फूटी कौड़ी खिलने लगती है
बिन धूप वो सुनहरी
सोने – सी सपने लगती हैं
मैं वो किसलय पात हुए
अर्थ गूढ़ होता जाए
निरंकुश बन थोड़ा
मन इधर-उधर बहलाना चाहे
खुदसे मिलने के लिए
जाने कौन देश भ्रमण चाहे
देख अतरंगी हाव – भाव
आंखें टिम – टिमाती जाए
कभी कजरिया आंखें करके
अम्मा को लगे चिढ़ाए
कहती हर बार रोशनी
और इश्क अंधेरे से फरमाए
विस्तार कर रही है कभी
और जाने के लिए
है मग्न वो अभी
चाहत से मिल पाने के लिए।
