जहां मैं कुछ नहीं चाहती हूं
जहां मैं कुछ नहीं चाहती हूं
ये सिंदूर
ये चूड़ियां
ये मेरे नखरे उनके जैसे
मुझे कभी कभी बांध लेते हैं
फिर मेरा खुदको चीरने का मन करता है
कभी जब लगता है
कुछ लगाव खुशबू वाला
दिखता है वो जो खुबसूरत है
तो तबियत से एक एक
अपनी छवि पे डाला जाता है
पर फिर वो दिन लौट आता है
और फिर वो गहना
मुझे मुझपे पड़ा खीचड़ नज़र आता है
कभी मैं पूरी श्रद्धा से भर
हर चीज का सम्मान कर
बड़े प्यार से संवरती हूं
कभी बिंदी तो कभी काजल
कभी औंठों को थोड़ा रंगीन कर
वो चमक और बढ़ाकर
कभी देखती हूं खुदको
तो कभी उसका दीदार करती हूं
तो कभी सड़क की भंगन बन
मैलापन अपने पास रखती हूं
बासी मैं बासी हर चीज रखती हूं
ना मुंह धोती हूं
ना बाल ठीक करती हूं
पर फिर भी वो पास रहता है
जो हर दम साथ रहता है
मेरा साया जो हमेशा
हर वक्त ढलना बर्दास्त करता है
मैं हर दिन बदलती हूं
लहीजा नकाब मेरा
और वो इतना प्यार करता है
कि मैं जो कहती हूं वो
सबमें हां करता है
वो कभी मेरा पिता बन
सारी गलतियां देखता है
पर कहता कुछ नहीं है
कभी ढेरों शिकायते मेरे यार सी करता है
ये मैं हूं मैं कह नहीं पाती
मैं हर वक्त एक सी रह नहीं पाती
ये जंग मेरी किसी से नहीं
बस अपने आपसे है
मैं इस नकाब पेशी से आज़ाद हो
आईने सा साफ होना चाहती हूं
मैं जो बात है सच बस वही रहना चाहती हूं
मैं सिर के इस भारी बोझ को
मर कर भी ये जाए तो
मैं बस मरना चाहती हूं
पर जब मैं ऐसा सोचती हूं
तो वो हरकत कर जाती है
जो खुद पागल मोही बनी
बैठी है किसी के प्यार में
वो मुझे कुछ और दिखा जाती है
कभी हिम्मत कभी दिलासा
कभी ढेर झूठ से पर्दा हटा
वो प्यारा आनंद दिखा जाती है
कुछ समय के लिए
मैं उस गुमनाम पर खुबसूरत
इलाके में घूमती हूं
और फिर मैं वो हो जाती हूं
जो मैं होना चाहती हूं
जहां मैं बस कुछ नहीं चाहती हूं।